भाषा क्या है? मानव जाति द्वारा अपने विचारों, कल्पनाओं और मनोभावों को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त ध्वनि एवं लेखन की प्रणाली को भाषा कहते हैं | भाषा शब्द की निष्पत्ति संस्कृत के ‘भाष्’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है ‘व्यक्त वाणी’ | “भाष्यते व्यक्तवाग् रूपेण अभिव्यंज्यते इति भाषा” अर्थात व्यक्त वाणी के रूप में जिसकी अभिव्यक्ति की जाती है, उसे भाषा कहते हैं | महर्षि पतंजलि ने पाणिनी के अष्टाध्यायी महाभाष्य में भाषा की परिभाषा करते हुए कहा है - “व्यक्ता वाची वर्णां येषां त इमे व्यक्तवाचः” अर्थात जो वाणी से व्यक्त हो उसे भाषा संज्ञा दी जाती है | प्लेटो ने विचार तथा भाषा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है –
“विचार आत्मा की मूक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं” | सरल शब्दों में कहें तो, भाषा अपने विचारों की अभिव्यक्ति या संचार का एक माध्यम है | इस माध्यम का विकास या तो मनुष्य में नकल करने से या एक प्रक्रिया के तहत सीखने से होता है | बचपन में जब सीखने की क्षमता नहीं होती है तो शिशु अपने आसपास प्रयुक्त भाषा की नकल करता है | इसतरह बचपन से ही उस बच्चे में एक संचार माध्यम का विकास होता है | किसी भी व्यक्ति की वह भाषा जिससे सबसे पहले उसका परिचय होता है उसकी मातृभाषा या प्रथम भाषा कहलाती है | यह मातृभाषा उस बच्चे को सीखनी नहीं पड़ती बल्कि अपने वातावरण एवं परिवेश से वह स्वतः ग्रहण करता है | वही बालक जब बड़ा होकर कोई भी दूसरी भाषा सीखता है तो वो सभी भाषाएं उसकी द्वितीय भाषा कहलाती है | मातृभाषा का शाब्दिक मतलब होता है – माँ की भाषा | इस तरह ‘मातृभाषा’ वह है जो बालक अपनी माँ से ग्रहण करता है | अंग्रेजी में मातृभाषा को “mother tongue” कहते हैं जिसका मतलब होता है “the language of the mother”. हर व्यक्ति की अपनी मातृभाषा होती जो उसकी माँ की भाषा होती है | विभिन्न परिस्थितियों में, माँ की मृत्यु या अनुपस्थिति में, बच्चे के परिवार में बोले जाने वाली भाषा उस बच्चे की मातृभाषा कहलाती है | किसी भी परिवार या समाज में कोई एक बालक सिर्फ अपनी माँ से ही नहीं जुड़ा होता है अपितु उसका परिवेश भी उस बच्चे के पालन पोषण में सहायक होता है| एक ही परिवार में माँ एवं पिता की विभिन्न भाषा हो सकती है जो उस बालक पर समान रूप से असर करता है | इस तरह किसी भी बच्चे की सिर्फ एक मातृभाषा नहीं हो सकती है | लेकिन चूंकि सबसे पहले और सबसे ज्यादा प्रभाव अपनी माँ की भाषा का ही होता है इसीलिए उस भाषा को मातृभाषा या प्रथम भाषा कहते हैं |
वैश्विक स्तर पर मातृभाषा की पहचान को लेकर मतभेद होता रहा है | हर भाषा समूह अपनी प्रथम/मातृभाषा की पहचान और उसकी समृद्धि के लिए संघर्ष करता रहता है | भारत जैसे बहुभाषिक राष्ट्र में यह एक स्वाभाविक क्रिया है | भारतीय परिपेक्ष्य में, अगर हाल की घटनाओं पर गौर किया जाए तो ताजा विवाद जनगणना में अंगिका एवं बज्जिका भाषा को मातृभाषा कोड प्रदान करने को लेकर चल रहा है | किसी भी भाषा को भाषा/विभाषा/उपभाषा का दर्जा देना राजनैतिक मुद्दा हो सकता है | राजनीति से इतर, भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कोई भी दो भाषा अगर “पारस्परिक बोधगम्य” हो अर्थात दो विभिन्न भाषा भाषी अगर एक दूसरे की भाषा को बिना किसी कठिनाई से समझ रहे हों तो दोनों भाषा को एक ही भाषा श्रेणी में रखा जाता है | मैं अपना ही उदाहरण लूँ तो मैथिली भाषी होने के बावजूद अंगिका एवं बज्जिका दोनों मेरे लिए बोधगम्य है अर्थात दोनों ही भाषा में आसानी से समझ सकता हूँ | इसतरह यह कहा जा सकता है मैथिली, अंगिका एवं बज्जिका, कुछ कुछ भिन्नताओं के साथ, तीनों एक ही भाषा के स्वरूप हैं| स्वतंत्र भाषा के रूप में स्थापित होने के लिए भाषा विज्ञान में अलग मानक तय किए गए हैं जो अलग व्याख्या की वस्तु है |
अब बात आती है जनगणना में किसी खास भाषा को अलग मातृभाषा क्रमांक निर्धारित किए जाने के संबंध में तो सबसे पहले देखते हैं की “मातृभाषा क्रमांक” क्या होता है और किसी भाषा पर इसका क्या असर पड़ता है | 2011 की जनगणना के अनुसार, कुल 1369 मातृभाषा की पहचान शुरु में हुई | कोई भी भाषा जो 10,000 या उससे अधिक लोगों के द्वारा बोली जाती हो या इन सभी ने उसे अपनी मातृभाषा बताया हो उसे एक अलग क्रमांक दिया जाता है | इस निश्चित संख्या से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को अलग मातृभाषा क्रमांक नहीं दिया जाता है | इसतरह 270 मातृभाषाओं की पहचान हुई | पुनः 270 मातृभाषाओं को अनुसूचित एवं गैर-अनुसूचित श्रेणी में बाँटा गया जिसके फलस्वरूप 123 मातृभाषाओं को 22 अनुसूचित भाषाओं में और 147 भाषाओं को गैर-अनुसूचित भाषा की श्रेणी में रखा गया | बंगाली भाषा के अंदर 4, कोंकणी के 6, तमिल के 5, हिन्दी के अंदर सर्वाधिक 58 (जिसमें भोजपुरी एवं मगही भाषा भी शामिल है) एवं मैथिली के अंदर 5 प्रकार की मातृभाषाओं को रखा गया | इसी प्रकार लगभग सभी अनुसूचित भाषाओं के साथ उस क्षेत्र की या उस भाषा से संबंध रखने वाले मातृभाषाओं को एक श्रेणी में रखा गया | मैथिली, जो 1,35,83,464 लोगों (2011 जनगणना) के द्वारा बोली जाती है, में जिन 5 मातृभाषाओं को समाहित किया गया उनमें मैथिली(1,33,53,347), पूर्वी मैथिली(11,116), थारु(53,575), थाटी(1,65,420) एवं अन्य(6) प्रकार शामिल हैं | इस वर्गीकरण की भी कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं होने से भाषा के परिक्षेत्र एवं सीमा की व्याख्या के संदर्भ में एक भ्रम की स्थिति पैदा होती है | इसतरह जो आज की अंगिका एवं बज्जिका है उसका मातृभाषा श्रेणी में कोई अस्तित्व ही नहीं है जबकि बिहार के पूर्वी भाग और झारखंड के उत्तर पश्चिमी भाग में बहुत बड़े स्तर पर अंगिका बोली जाती है | ठीक इसीतरह बज़्जिका भी बिहार के पश्चिमी भाग और वृहत स्तर पर नेपाल में एक अलग भाषा के रूप में बोली जाती है | ‘अंगिका’ बिहार के विश्वविद्यालय में उच्च शैक्षणिक स्तर पर अध्ययन-अध्यापन किया जाता है | अंगिका झारखंड की क्षेत्रीय/द्वितीय भाषा के रूप में स्वीकृत तो है परंतु जनगणना में मातृभाषा क्रमांक निर्धारित नहीं रहने से लोगों में मैथिली-हिन्दी द्वन्द्व के कारण दुविधा की स्थिति होती है और लोग अपनी मातृभाषा हिन्दी दर्ज करवाते हैं | मैंने स्वयं यह अनुभव किया और उत्सुकतावश जब लोगों से पूछा तो अधिकांश लोगों ने यह बताया की हम अपनी मातृभाषा ‘हिन्दी’ बताते हैं | इस स्थिति में ‘वो लोग’ ना तो हिन्दी और ना ही मैथिली में अपनी पहचान दर्ज करवा पाते हैं | अगर लोग अंगिका मातृभाषा दर्ज भी करवाते हैं तो एक निश्चित क्रमांक नहीं होने के कारण या तो किसी अन्य भाषा श्रेणी(संभवतः हिन्दी) में यह दर्ज की जाती है या फिर संख्या गौण रह जाती है |
क्या हो अगर अंगिका एवं बज्जिका को अलग क्रमांक दिया जाए ? भाषाविज्ञान की दृष्टि से, कुछ विभिन्नता एवं अधिक समानता रहने के कारण एक ही भाषा होते हुए भी स्वरूप भिन्न हैं| इसलिए उपर्युक्त दोनों मातृभाषाओं को क्रमांक एवं अपना नाम मिलने से अपनी संस्कृति के साथ एक पहचान मिलेगी| लोगों की भाषा संबंधित भ्रांतियाँ दूर होंगी और वे अपनी मातृभाषा का नाम स्पष्ट रूप से सही सही दर्ज करवा सकेंगे जिससे अंगिका भाषी और बज़्जिका भाषी लोगों की सही संख्या ज्ञात हो सकेगी | मैथिली बोलने वालों की संख्या(पूर्व वर्णित), जो अंगिका एवं बज़्जिका के अलग से दर्ज नहीं रहने के कारण कम दर्शाई गई है, में भी निःसंदेह वृद्धि होगी| अभी हमें यह नहीं पता है की अंगिका एवं बज़्जिका को किस भाषा के अंतर्गत रखा गया है | संभव है कि इसे हिंदी के अंतर्गत रखा गया हो। अगर ऐसा है तो यह गलत है क्योंकि भाषाई दृष्टिकोण से अंगिका और बज्जिका मैथिली की मातृभाषाएं मानी जानी चाहिए, हिंदी की नहीं। इसी तरह “सुरजापुरी”, जो भाषाई दृष्टिकोण से मैथिली से सम्बद्ध है एवं 22,56,228 (2011 जनगणना रिपोर्ट) लोगों के द्वारा बोली जाती है, को भी हिन्दी के उपभेद के रूप में ही मातृभाषा श्रेणी में रखा गया है जबकि आदर्श रूप में इसे मैथिली के उपवर्ग के रूप में रखा जाना चाहिए था |
जिस तरह समाज में विविधता रहने से समाज समृद्ध होता है उसी तरह भाषा में भी विविधता उसकी समृद्धि का द्योतक है | जैसे नेपाल में एक अलग तरह की मैथिली बोली जाती है एवं उसकी एक अलग पहचान है | अंगिका एवं बज्जिका की पहचान होने से मैथिली की पहचान में विकास होगा, ना की ह्रास होगा | हरियाणवी, राजस्थानी, अवधी इत्यादि उपभेद हिन्दी का होकर भी अपनी अपनी भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पहचान के लिए जाने जाते हैं और इससे हिन्दी का दायरा व्यापक होता है | ‘अंग’ एवं ‘वैशाली’ दोनों का समृद्धशाली इतिहास रहा है जो इन मातृभाषाओं को पहचान मिलने से और अधिक गौरव को प्राप्त करेगा | जबतक भाषाविज्ञान की मानक पर खड़ा उतर कर ये दोनों अपना स्वतंत्र दर्जा नहीं प्राप्त कर लेते तबतक ये अपने अस्तित्व के साथ अपनी विभिन्नताओं सहित मैथिली को समृद्ध करते रहेंगे | अतः अंगिका एवं बज्जिका को अलग मातृभाषा क्रमांक दिए जाने का सिर्फ स्वागत ही नहीं अपितु समर्थन किया जाना चाहिए |
अतः समय की जरूरत है की उपर्युक्त भाषा भाषी, राजनीति से परे, एक मानक प्रक्रिया के तहत भाषावैज्ञानिक मापदंडों को पूर्ण करने का प्रयत्न करें और मैथिली भाषा भाषी अपनी भाषा में विविधता को स्वीकार कर अपनी भाषा को समृद्ध करने का प्रयत्न करें | इससे सिर्फ भाषा ही समृद्ध नहीं होगी अपितु सम्बद्ध संस्कृति, आचार-विचार, लोक-व्यवहार आदि की पहचान भी वैश्विक स्तर पर बढ़ेगी |
(ये लेखक के अपने विचार हैं )
आलेख:
शान्तनु कुमार
भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर
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